एक
ही औषधि हर मर्ज पर हर व्यक्ति के लिए काम नहीं आ सकती । इसी प्रकार
परिस्थितियों के अनुरूप अनेक सिद्धांतों का प्रयोग किया जाता है । भाग्यवाद
का सिद्धांत भी एक ऐसा ही प्रयोग है जो केवल तब काम में लाया जाता है, जब
मनुष्य के पुरुषार्थ करने पर भी अभीष्ट सफलता न मिले । असफलता में निराशा
और खीज उत्पन्न होती है और अपनी भूल तथा दूसरों के असहयोग के अनेक प्रसंग
ध्यान में आते हैं । ऐसी दशा में असफलता की हानि के साथ लोग भावी सतर्कता
के लिए शिक्षा तो नहीं लेते, उल्टे अपने या दूसरों के ऊपर झल्लाते,
उद्विग्न होते देखे जाते हैं, इन परिस्थितियों में भाग्यवाद की चर्चा करके
चित्त को हल्का किया जा सकता है । उस समय के लिए यह उपयुक्त औषधि हैं ।
जैसे तेज बुखार के सिर दर्द में एस्प्रो की गोली खाकर थोड़ी देर के लिए
राहत मिल जाती है ।
इसके
अतिरिक्त यदि , कर्त्तव्य क्षेत्र में उसका उपयोग किया जाने लगा तो उससे
केवल अनर्थ ही उत्पन्न होगा । लोग अपना कर्त्तव्य और पुरुषार्थ खो बैठेंगे ।
आशा और उत्साह, साहस और शौर्य सब कुछ कुण्ठित हो जायेगा । अपने देश में
ऐसा ही कुछ बहुत दिनों से होता चला आ रहा है और हम अपने कर्त्तव्यों के
प्रति निर्जीव, नपुंसक, अन्यमनस्क और निराशाग्रस्त होते चले जा रहे हैं ।
“जो भाग्य में लिखा है, सो होगा - होनी टलेगी नहीं; जितना मिलना है, उतना
ही मिलेगा - कर्म-रेखा मिटती नहीं; जब अच्छे दिन आयेंगे, तभी सफलता मिलेगी”
- जैसी मान्यताएँ यदि मजबूती से मन में जड़ जमा लें तो किसी भी मनुष्य को
अकर्मण्य और निराशावादी बना देगी । वह यही सोचता रहेगा कि जब अच्छा समय
आयेगा तब सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा। यदि अपने भाग्य में नहीं है, तो
मेहनत करने पर भी क्यों मिलेगा ?
यह
विचारधारा भारतीय दर्शन के सर्वथा विपरीत है । अपने यहाँ सदा पुरुषार्थ,
कर्म, प्रयत्न और संघर्ष को मानव-जीवन की अनिवार्य आवश्यकता के रूप में
प्रतिपादित किया जाता है । अपना सारा अध्यात्म इतिहास और दर्शन इसी
प्रतिपादन से भरा पड़ा है । फिर यह भाग्यवाद विकृत विचारधारा कहाँ से चल
पड़ी ? इसकी खोज करने पर स्पष्ट हो जाता है कि सामन्तवादी शोषकों ने अपनी
अत्यचारों से पीड़ित जनता को किसी प्रकार शान्त-संतुष्ट करने के लिए यह
मनोवैज्ञानिक नशे की गोली विनिर्मित की । उनके इशारे पर साधु-पण्डित भी इस
तरह के किस्से-कहानी गढ़कर पीड़ितों के रोष-प्रतिरोष को शान्त व शमन करने में
लगे रहे । शोषक और दुष्ट-दुराचारी अपने द्वारा उत्पीड़ित शोषित लोगों को
इसी आधार पर ठण्डा करते रहे कि तुम्हारे भाग्य में कुछ ऐसा ही लिखा था,
जिसके कारण दु:ख-दारिद्र सहन करने पड़ रहे है । हम तो निमित्त मात्र हैं ।
असली कारण तो तुम्हारा भाग्य है । जब भाग्य और भगवान की इच्छा ही जब
एकमात्र कारण है, तब उस कुकृत्य को रोकने की, विरोध करने की बात सोचना ही
बेकार है । इसलिये आवश्यक है कि इस बौद्धिक दासता के भ्रष्ट सिद्धांत को
ठोकर मारें, जिसे शोषकों ने हमारे रोष की प्रतिक्रिया से बचने के लिए गढ़ा
और फैलाया है । कल का कर्म ही आज भाग्य बन सकता है । कल का दूध आज दही कहला
सकता है । इसलिए यदि भाग्य कुछ है भी तो केवल हमारी कर्मठता की
प्रतिक्रिया, प्रतिध्वनि मात्र है। इसलिये हमें भाग्य की और न देखकर
कर्मनिष्ठा को ही प्रधानता देना चाहिए ।
No comments:
Post a Comment