राग
ही बंधन को घनीभूत करता है। वैराग्य से ही विमुक्ति होती है। साधक में जब
सत्य का समावेश होता है, तब उसमें सारे विषय पदार्थों के प्रति स्वाभाविक
विरक्ति हो जाती है। वैराग्य की दिनानुदिन अभिवृद्धि होती है। यह इसका
स्पष्ट परिचायक है कि साधक आध्यात्मिकता की ओर बढ़ता जा रहा है। यदि
वैराग्य की स्थिति का अनुभव मनुष्य में उत्पन्न नहीं हुआ, तो यह रंचमात्र
भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सकता। वैराग्य महती शक्ति है, जिससे साधक सतत
ध्यान के लिए प्रवृत्त होता है और अंततः आत्मसाक्षात्कार करता है।
विवेकयुक्त वैराग्य ही लाभदायक है, अन्यथा तो वैराग्य अस्थायी है।
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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