Good World

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Wednesday, November 21, 2012

"आत्मनिर्माण का साधन - आत्मभाव का विस्तार"

साधक की दृष्टि से विकास का सबसे उच्च स्तर है - आत्मभाव का विस्तार। इस स्तरपर पहुंचने से साधक सर्वत्र आत्मभाव का दर्शन करता है। प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु तथा जगत को वह ब्रह्म रूप देखता है। अपने शरीर को वह परमात्मा का गृह समझता है। वह जिस वस्तु को देखता है,वे सब उसकी आत्मा के अंग-प्रत्यंग हैं। उसकी आत्मा का दायरा सुव्यवस्थित होता है, जिसमें शत्रु-मित्र सभी सम्मिलित होते हैं। 


  जो व्यक्ति अपने-पराये के भेदभाव पर विशेष ध्यान देते हैं, वे आत्मनिर्माण में शीघ्र अग्रसर नहीं हो सकते। हमारे शास्त्रकारों ने "आत्मवत सर्वभूतेषु" का जो सिद्धांत बतलाया है, उसका वास्तविक तात्पर्य यही है कि मनुष्य सभी को आत्मस्वरूप में देखे और भिन्नत्व की भावना को यथाशक्ति कम से कम घटा दे। 


-पं. श्रीरामशर्मा आचार्य

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